Jagat Guru Rampal Ji Maharaj

Wednesday, June 10, 2009

पवित्र गीता जी का ज्ञान किसने कहा?

पूर्ण परमात्मा(पूर्ण ब्रह्म) अर्थात् सतपुरुष का ज्ञान न होने के कारण सर्व विद्वानों को ब्रह्म(निरंजन/काल भगवान जिसे महाविष्णु भी कहते हैं) तक का ज्ञान है। पवित्र आत्माऐं चाहे वे ईसाई हैं, मुसलमान, हिन्दू या सिख धर्म से सम्बन्धित हैं इनको केवल अव्यक्त अर्थात् एक ओंकार परमात्मा की पूजा का ही ज्ञान पवित्र शास्त्रों (जिनको पुराणों, उपनिषदों, कतेबों, वेदों, गीता आदि नामों से जाना जाता है) से हो पाया, क्योंकि इन सर्व शास्त्रों में ज्योति स्वरूपी अर्थात् काल ब्रह्म की ही पूजा विधि का वर्णन है तथा जानकारी पूर्ण ब्रह्म(सतपुरुष) की भी है। पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) न मिलने से पूर्ण ब्रह्म की पूजा का ज्ञान नहीं हुआ जिस कारण से पवित्र आत्माऐं ईसाई फोर्मलैस गौड (निराकार प्रभु) कहते हैं, जबकि पवित्र बाईबल में उत्पत्ति विषय के सृष्टि की उत्पत्ति नामक अध्याय में लिखा है कि प्रभु ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया तथा छः दिन में सृष्टि रचना करके सातवें दिन विश्राम किया। इससे स्वसिद्ध है कि प्रभु भी मनुष्य जैसे आकार में है। इसी का प्रमाण पवित्र क़ुरान शरीफ में भी है। इसी प्रकार पवित्र आत्माऐं मुस्लमान प्रभु को बेचून (निराकार) अल्लाह (प्रभु) कहते हैं, जबकि पवित्र क़ुरान शरीफ के सुरत फूर्कानि संख्या 25, आयत संख्या 52 से 59 में लिखा है कि जिस प्रभु ने छः दिन में सृष्टि रची तथा सातवें दिन तख्त पर जा विराजा, उसका नाम कबीर है। पवित्र क़ुरान को बोलने वाला प्रभु किसी और कबीर नामक प्रभु की तरफ संकेत करके कह रहा है कि वही कबीर प्रभु ही पूजा के योग्य है, पाप क्षमा करने वाला है, परन्तु उसकी भक्ति के विषय में मुझे ज्ञान नहीं, किसी (बाखबर) तत्वदर्शी संत से पूछो।

उपरोक्त दोनों पवित्र शास्त्रों (पवित्र बाईबल व पवित्र क़ुरान शरीफ) ने मिल-जुल कर सिद्ध कर दिया है कि परमेश्वर मनुष्य सदृश शरीर युक्त है। उसका नाम कबीर है। पवित्र आत्माऐं हिन्दू व सिख उसे निरंकार(निराकार) के नाम से जानते हैं। जबकि आदरणीय नानक साहेब जी ने सतपुरुष के आकार रूप में दर्शन करने के पश्चात् अपनी अमृतवाणी महला पहला ‘श्रीगुरु ग्रन्थ साहेब‘ में पूर्ण ब्रह्म का आकार होने का प्रमाण दिया है, लिखा है ‘‘धाणक रूप रहा करतार(पृष्ठ 24), हक्का कबीर करीम तू बेएब परवरदिगार (पृष्ठ 721)‘‘ तथा प्रभु के मिलने से पहले पवित्र हिन्दू धर्म में जन्म होने के कारण श्री ब्रजलाल पाण्डे से पवित्रा गीता जी को पढ़कर श्री नानक साहेब जी ब्रह्म को निराकार कहा करते थे। उनकी दोनों प्रकार की अमृतवाणी गुरु ग्रन्थ साहेब मे लिखी हैं। हिन्दुओं के माने जाने वाले शास्त्रों में पवित्र वेद व गीता विशेष हैं, उनके साथ-2 अठारह पुराणों को भी समान दृष्टी से देखा जाता है। श्रीमद् भागवत सुधासागर, रामायण, महाभारत भी विशेष प्रमाणित शास्त्रों में से हैं। विशेष विचारणीय विषय यह है कि वर्तमान में जिन पवित्र शास्त्रों को हिन्दुओं के शास्त्र कहा जाता है, जैसे पवित्रा चारों वेद व पवित्र श्रीमद् भगवत गीता जी आदि, वास्तव में ये सद् शास्त्र केवल पवित्र हिन्दु धर्म के ही नहीं हैं। ये सर्व शास्त्र महर्षि व्यास जी द्वारा उस समय लिखे गए थे जब कोई अन्य धर्म नहीं था। इसलिए पवित्र वेद व पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी तथा पवित्र पुराणादि सर्व शास्त्र मानव मात्र के कल्याण के लिए हैं।

पवित्र यजुर्वेद अध्याय 1 मंत्र 15 तथा अध्याय 5 मंत्र 1 व 32 में स्पष्ट किया है कि ‘‘{अग्नेः तनूर् असि, विष्णवे त्वा सोमस्य तनुर् असि, कविरंघारिः असि, बम्भारिः असि स्वज्र्योति ऋतधामा असि} परमेश्वर का शरीर है, पाप के शत्रु परमेश्वर का नाम कविर्देव है, वही बन्धनों का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ है। उस सर्व पालन कत्र्ता अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष का शरीर है। वह स्वप्रकाशित शरीर वाला प्रभु सतधाम अर्थात् सतलोक में रहता है। पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 8 में कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा कविर्मनीषी अर्थात् कविर्देव ही वह तत्वदर्शी है जिसकी चाह सर्व प्राणियों को है, वह कविर्देव परिभूः अर्थात् सर्व प्रथम प्रकट हुआ, जो सर्व प्राणियों की सर्व मनोकामना पूर्ण करता है। वह कविर्देव स्वयंभूः अर्थात् स्वयं प्रकट होता है, उसका शरीर किसी माता-पिता के संयोग से (शुक्रम् अकायम्) वीर्य से बनी काया नहीं है, उसका शरीर (अस्नाविरम्) नाड़ी रहित है अर्थात् पांच तत्व का नहीं है, केवल तेजपुंज से एक तत्व का है, जैसे एक तो मिट्टी की मूर्ति बनी है, उसमें भी नाक, कान आदि अंग हैं तथा दूसरी सोने की मूर्ति बनी है, उसमें भी सर्व अंग हैं। ठीक इसी प्रकार पूज्य कविर्देव का शरीर तेज तत्व का बना है, इसलिए उस परमेश्वर के शरीर की उपमा में अग्नेः तनूर् असि वेद में कहा है। जिसका अर्थ है ‘‘तेजोमय परमेश्वर सशरीर है’’।

आईए सर्व प्रथम पवित्र शास्त्र श्रीमद्भगवत गीता जी पर विचार करते हैं:-

पवित्र श्रीमदभगवद् गीता जी का ज्ञान किसने कहा?

पवित्र गीता जी के ज्ञान को उस समय बोला गया था जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था। अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। युद्ध क्यों हो रहा था? इस युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती क्योंकि दो परिवारों कौरवों तथा पाण्डवों का सम्पत्ति वितरण पर विवाद था। कौरवों ने पाण्डवों को आधा राज्य भी देने से मना कर दिया था। दोनों पक्षों का बीच-बचाव करने के लिए प्रभु श्री कृष्ण जी तीन बार शान्ति दूत बन कर गए। परन्तु दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद्द पर अटल थे। श्री कृष्ण जी ने युद्ध से होने वाली हानि से भी परिचित कराते हुए कहा कि न जाने कितनी बहन विधवा होंगी ? कितने ही बच्चे अनाथ हो जाऐंगे? महापाप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। युद्ध में क्या पता कौन मरे, कौन बचे ? तीसरी बार जब श्री कृष्ण जी समझौता करवाने गए तो दोनों पक्षों ने अपने-अपने पक्ष वाले राजाओं की सेना सहित सूची पत्र दिखाया तथा कहा कि इतने राजा हमारे पक्ष में हैं तथा इतने हमारे पक्ष में। श्री कृष्ण जी ने देखा कि दोनों ही पक्ष टस से मस नहीं हो रहे हैं, युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। तब श्री कृष्ण जी ने सोचा कि एक दाव और है वह भी आज लगा देता हूँ। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि कहीं पाण्डव मेरे सम्बन्धी होने के कारण अपनी जिद्द इसलिए न छोड़ रहे हों कि श्री कृष्ण हमारे साथ हैं, विजय हमारी ही होगी(क्योंकि श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा जी का विवाह श्री अर्जुन जी से हुआ था)। श्री कृष्ण जी ने कहा कि एक तरफ मेरी सर्व सेना होगी और दूसरी तरफ मैं होऊँगा और इसके साथ-साथ मैं वचन बद्ध भी होता हूँ कि मैं हथियार भी नहीं उठाऊँगा। इस घोषणा से पाण्डवों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनको लगा कि अब हमारी पराजय निश्चित है। यह विचार कर पाँचों पाण्डव यह कह कर सभा से बाहर गए कि हम कुछ विचार कर लें। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को सभा से बाहर आने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के बाहर आने पर पाण्डवों ने कहा कि हे भगवन् ! हमें पाँच गाँव दिलवा दो। हम युद्ध नहीं चाहते हैं। हमारी इज्जत भी रह जाएगी और आप चाहते हैं कि युद्ध न हो, यह भी टल जाएगा। पाण्डवों के इस फैसले से श्री कृष्ण जी बहुत प्रसन्न हुए तथा सोचा कि बुरा समय टल गया। श्री कृष्ण जी वापिस आए, सभा में केवल कौरव तथा उनके समर्थक शेष थे। श्री कृष्ण जी ने कहा दुर्योधन युद्ध टल गया है। मेरी भी यह हार्दिक इच्छा थी। आप पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो, वे कह रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते। दुर्योधन ने कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक तुल्य भी जमीन नहीं है। यदि उन्हे राज्य चाहिए तो युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान में आ जाऐं। इस बात से श्री कृष्ण जी ने नाराज होकर कहा कि दुर्योधन तू इंसान नहीं शैतान है। कहाँ आधा राज्य और कहाँ पाँच गाँव? मेरी बात मान ले, पाँच गाँव दे दे। श्री कृष्ण से नाराज होकर दुर्योधन ने सभा में उपस्थित योद्धाओं को आज्ञा दी कि श्री कृष्ण को पकड़ो तथा कारागार में डाल दो। आज्ञा मिलते ही योद्धाओं ने श्री कृष्ण जी को चारों तरफ से घेर लिया। श्री कृष्ण जी ने अपना विराट रूप दिखाया। जिस कारण सर्व योद्धा और कौरव डर कर कुर्सियों के नीचे घुस गए तथा शरीर के तेज प्रकाश से आँखें बंद हो गई। श्री कृष्ण जी वहाँ से निकल गए।

आओ विचार करें:- उपरोक्त विराट रूप दिखाने का प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवृत हुआ हूँ। फिर अध्याय 11 श्लोक 21 व 46 में अर्जुन कह रहा है कि भगवन् ! आप तो ऋषियों, देवताओं तथा सिद्धों को भी खा रहे हो, जो आप का ही गुणगान पवित्र वेदों के मंत्रों द्वारा उच्चारण कर रहे हैं तथा अपने जीवन की रक्षा के लिए मंगल कामना कर रहे हैं। कुछ आपके दाढ़ों में लटक रहे हैं, कुछ आप के मुख में समा रहे हैं। हे सहस्त्रबाहु अर्थात् हजार भुजा वाले भगवान! आप अपने उसी चतुर्भुज रूप में आईये। मैं आपके विकराल रूप को देखकर धीरज नहीं कर पा रहा हूँ। अध्याय 11 श्लोक 47 में पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु काल कह रहा है कि ‘हे अर्जुन यह मेरा वास्तविक काल रूप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था।‘ उपरोक्त विवरण से एक तथ्य तो यह सिद्ध हुआ कि कौरवों की सभा में विराट रूप श्री कृष्ण जी ने दिखाया था तथा यहाँ युद्ध के मैदान में विराट रूप काल (श्री कृष्ण जी के शरीर मे प्रेतवत् प्रवेश करके अपना विराट रूप काल) ने दिखाया था। नहीं तो यह नहीं कहता कि यह विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है। क्योंकि श्री कृष्ण जी अपना विराट रूप कौरवों की सभा में पहले ही दिखा चुके थे। दूसरी यह बात सिद्ध हुई कि पवित्र गीता जी को बोलने वाला काल(ब्रह्म-ज्योति निरंजन) है, न कि श्री कृष्ण जी। क्योंकि श्री कृष्ण जी ने पहले कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ तथा बाद में कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ। श्री कृष्ण जी काल नहीं हो सकते। उनके दर्शन मात्र को तो दूर-दूर क्षेत्र के स्त्री तथा पुरुष तड़फा करते थे। यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24.25 में है जिसमें गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे उस घटिया (अनुत्तम) विद्यान को नहीं जानते कि मैं कभी भी मनुष्य की तरह किसी के सामने प्रकट नहीं होता। मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।

‘‘विराट रूप क्या है ?’’

विराट रूप: आप दिन के समय या चाँदनी रात्रि में जब आप के शरीर की छाया छोटी लगभग शरीर जितनी लम्बी हो या कुछ बड़ी हो, उस छाया के सीने वाले स्थान पर दो मिनट तक एक टक देखें, चाहे आँखों से पानी भी क्यों न गिरें। फिर सामने आकाश की तरफ देखें। आपको अपना ही विराट रूप दिखाई देगा, जो सफेद रंग का आसमान को छू रहा होगा। इसी प्रकार प्रत्येक मानव अपना विराट रूप रखता है। परन्तु जिनकी भक्ति शक्ति ज्यादा होती है, उनका उतना ही तेज अधिक होता जाता है। इसी प्रकार श्री कृष्ण जी भी पूर्व भक्ति शक्ति से सिद्धि युक्त थे, उन्होंने भी अपनी सिद्धि शक्ति से अपना विराट रूप प्रकट कर दिया, जो काल के तेजोमय शरीर(विराट) से कम तेजोमय था। तीसरी बात यह सिद्ध हुई कि पवित्र गीता जी बोलने वाला प्रभु काल सहस्त्रबाहु अर्थात् हजार भुजा युक्त है तथा श्री कृष्ण जी तो श्री विष्णु जी के अवतार हैं जो चार भुजा युक्त हैं। श्री विष्णु जी सोलह कला युक्त हैं तथा श्री ज्योति निरंजन काल भगवान एक हजार कला युक्त है। जैसे एक बल्ब 60 वाट का होता है, एक बल्ब 100 वाट का होता है, एक बल्ब 1000 वाट का होता है, रोशनी सर्व बल्बों की होती है, परन्तु बहुत अन्तर होता है। ठीक इसी प्रकार दोनों प्रभुओं की शक्ति तथा विराट रूप का तेज भिन्न-भिन्न था। इस तत्वज्ञान के प्राप्त होने से पूर्व जो गीता जी के ज्ञान को समझाने वाले महात्मा जी थे, उनसे प्रश्न किया करते थे कि पहले तो भगवान श्री कृष्ण जी शान्ति दूत बनकर गए थे तथा कहा था कि युद्ध करना महापाप है। जब श्री अर्जुन जी ने स्वयं युद्ध करने से मना करते हुए कहा कि हे देवकी नन्दन मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूँ। सामने खड़े स्वजनों व नातियों तथा सैनिकों का होने वाला विनाश देख कर मैंने अटल फैसला कर लिया है कि मुझे तीन लोक का राज्य भी प्राप्त हो तो भी मैं युद्ध नहीं करूँगा। मैं तो चाहता हूँ कि मुझ निहत्थे को दुर्योधन आदि तीर से मार डालें, ताकि मेरी मृत्यु से युद्ध में होने वाला विनाश बच जाए। हे श्री कृष्ण! मैं युद्ध न करके भिक्षा का अन्न खाकर भी निर्वाह करना उचित समझता हूँ। हे कृष्ण ! स्वजनों को मारकर तो पाप को ही प्राप्त होंगे। मेरी बुद्धि काम करना बंद कर गई है। आप हमारे गुरु हो, मैं आपका शिष्य हूँ। आप जो हमारे हित में हो वही दीजिए। परन्तु मैं नहीं मानता हूँ कि आपकी कोई भी राय मुझे युद्ध के लिए राजी कर पायेगी अर्थात् मैं युद्ध नहीं करूँगा। (प्रमाण पवित्र गीता जी अध्याय 1 श्लोक 31 से 39, 46 तथा अध्याय 2 श्लोक पाँच से आठ श्री कृष्ण जी में प्रवेश काल बार-बार कह रहे हैं कि अर्जुन कायर मत बन, युद्ध कर। या तो युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा, या युद्ध जीत कर पृथ्वी के राज्य को भोगेगा, आदि-आदि कह कर ऐसा भयंकर विनाश करवा डाला जो आज तक के संत-महात्माओं तथा सभ्य लोगों के चरित्र में ढूंढने से भी नहीं मिलता है। तब वे नादान गुरु जी(नीम-हकीम) कहा करते थे कि अर्जुन क्षत्रिय धर्म को त्याग रहा था। इससे क्षत्रित्व को हानि तथा शूरवीरता का सदा के लिए विनाश हो जाता। अर्जुन को क्षत्रिय धर्म पालन करवाने के लिए यह महाभारत का युद्ध श्री कृष्ण जी ने करवाया था। पहले तो मैं उनकी इस नादानों वाली कहानी से चुप हो जाता था, क्योंकि मुझे (संत रामपाल जी) स्वयं ज्ञान नहीं था।

पुनर् विचार करें:- भगवान श्री कृष्ण जी स्वयं क्षत्रिय थे। कंस के वध के उपरान्त श्री अग्रसैन जी ने मथुरा की बाग-डोर अपने दोहते श्री कृष्ण जी को संभलवा दी थी। एक दिन नारद जी ने श्री कृष्ण जी को बताया कि निकट ही एक गुफा में एक सिद्धि युक्त राजा मुचकन्द सोया पड़ा है। वह छः महीने सोता है तथा छः महीने जागता है। जागने पर छः महीने युद्ध करता रहता है तथा छः महीने सोने के समय यदि कोई उसकी निन्द्रा भंग कर दे तो मुचकन्द की आँखों से अग्नि बाण छूटते हैं तथा सामने वाला तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, आप सावधान रहना। यह कह कर श्री नारद जी चले गए। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी से अपने दामाद कंश की हत्या का प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से एक काल्यवन नामक राजा ने अठारह करोड़ सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण कर दिया। श्री कृष्ण जी ने देखा कि दुश्मन की सेना बहु संख्या में है तथा क्या पता कितने सैनिक मृत्यु को प्राप्त होंगे? क्यों न काल्यवन का वध मुचकन्द से करवा दूं? यह विचार कर भगवान श्री कृष्ण जी ने काल्यवन को युद्ध के लिए ललकारा तथा युद्ध छोड़ कर(क्षत्राी धर्म को भूलकर विनाश टालना आवश्यक जानकर) भाग लिये और उस गुफा में प्रवेश किया जिसमें मुचकन्द सोया हुआ था। मुचकन्द के शरीर पर अपना पीताम्बर(पीली चद्दर) डाल कर श्री कृष्ण जी गुफा में गहरे जाकर छुप गए। पीछे-पीछे काल्यवन भी उसी गुफा में प्रवेश कर गया। मुचकन्द को श्री कृष्ण समझ कर उसका पैर पकड़ कर घुमा दिया तथा कहा कि कायर तुझे छुपे हुए को थोड़े ही छोडूंगा। पीड़ा के कारण मुचकन्द की निंद्रा भंग हुई, नेत्रों से अग्नि बाण निकलें तथा काल्यवन मृत्यु को प्राप्त हुआ। काल्यवन के सैनिक तथा मंत्री अपने राजा के शव को लेकर लौट गए। क्योंकि युद्ध में राजा की मृत्यु सेना की हार मानी जाती थी। जाते हुए कह गए कि हम नया राजा नियुक्त करके शीघ्र ही आयेंगे तथा श्री कृष्ण तुझे नहीं छोड़ेंगे। श्री कृष्ण जी ने अपने मुख्य अभियन्ता (चीफ इन्जिनियर) श्री विश्वकर्मा जी को बुला कर कहा कि कोई ऐसा स्थान खोजो, जिसके तीन तरफ समुद्र हो तथा एक ही रास्ता(द्वार) हो। वहाँ पर अति शीघ्र एक द्वारिका(एक द्वार वाली) नगरी बना दो। हम शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान करेंगे। ये मूर्ख लोग यहाँ चैन से नहीं जीने देंगे। श्री कृष्ण जी इतने नेक आत्मा तथा युद्ध विरोधी थे कि अपने क्षत्रीत्व को भी दाव पर रख कर युद्ध से होने वाले नरसंहार को टाला। क्या फिर वही श्री कृष्ण जी अपने प्यारे साथी व सम्बन्धी को ऐसी बुरी सलाह दे सकते हैं तथा स्वयं युद्ध न करने का वचन करने वाले दूसरे को युद्ध की प्रेरणा दे सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं। गीता अध्याय 18 श्लोक 43 में गीता ज्ञान दाता ने क्षत्रिय के स्वभाविक कर्मों का उल्लेख करते हुए कहा है कि ‘‘युद्ध से न भागना’’ आदि-2 क्षत्रिय के स्वभाविक कर्म है। इस से भी सिद्ध हुआ कि गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने नहीं बोला। क्योंकि श्री कृष्ण जी स्वयं क्षत्री होते हुए काल्यवन के सामने से युद्ध से भाग गए थे। व्यक्ति स्वयं किए कर्म के विपरीत अन्य को राय नहीं देता। न उसकी राय श्रोता को ठीक जचेगी। वह उपहास का पात्र बनेगा। यह गीता ज्ञान ब्रह्म(काल) ने प्रेतवत् श्री कृष्ण जी में प्रवेश करके बोला था। भगवान श्री कृष्ण रूप में स्वयं श्री विष्णु जी ही अवतार धार कर आए थे।
एक समय श्री भृगु ऋषि ने विश्राम कर रहे भगवान श्री विष्णु जी(श्री कृष्ण जी) के सीने में लात घात किया। श्री विष्णु जी ने श्री भृगु ऋषि जी के पैर को सहलाते हुए कहा कि ‘हे ऋषिवर! आपके कोमल पैर को कहीं चोट तो नहीं आई, क्योंकि मेरा सीना तो कठोर पत्थर जैसा है।‘ यदि श्री विष्णु जी(श्री कृष्ण जी) युद्ध प्रिय होते तो सुदर्शन चक्र से श्री भृगु जी के इतने टुकड़े कर सकते थे कि गिनती न होती।
वास्तविकता यह है कि काल भगवान जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का प्रभु है, उसने प्रतिज्ञा की है कि मैं वास्तविक शरीर में व्यक्त(मानव सदृश अपने वास्तविक) रूप में सबके सामने नहीं आऊँगा। उसी ने सूक्ष्म शरीर बना कर प्रेत की तरह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके पवित्र गीता जी का ज्ञान तो सही(वेदों का सार) कहा, परन्तु युद्ध करवाने के लिए भी अटकल बाजी में कसर नहीं छोड़ी। (काल ब्रह्म) कौन है? यह जानने के लिए कृप्या सृष्टि रचना पढ़े इस पुस्तक के पृष्ठ नं. 84 से 159 पर: http://www.jagatgururampalji.org/agg.pdf जब तक महाभारत का युद्ध समाप्त नहीं हुआ तब तक ज्योति निरंजन (काल ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष) श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रविष्ट रहा तथा युधिष्ठिर जी से झूठ बुलवाया कि कह दो कि अश्वत्थामा मर गया, भीम के पौत्रा अर्थात् घटोतकच्छ के पुत्र(श्याम जी) का शीश कटवाया तथा रथ के पहिए को हथियार रूप में उठाया, यह सर्व काल ही का किया-कराया उपद्रव था, प्रभु श्री कृष्ण जी का नहीं। महाभारत का युद्ध समाप्त होते ही काल भगवान श्री कृष्ण जी के शरीर से निकल गया। श्री कृष्ण जी ने श्री युधिष्ठिर जी को इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) की राजगद्दी पर बैठाकर द्वारिका जाने को कहा। तब अर्जुन आदि ने प्रार्थना की कि हे श्री कृष्ण जी! आप हमारे पूज्य गुरुदेव हो, हमें एक सतसंग सुना कर जाना, ताकि हम आपके सद्वचनोंपर चल कर अपना आत्म-कल्याण कर सकें। यह प्रार्थना स्वीकार करके श्री कृष्ण जी ने तिथि, समय तथा स्थान निहित कर दिया। निश्चित तिथि को श्री अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण जी से कहा कि प्रभु आज वही पवित्र गीता जी का ज्ञान ज्यों का त्यों सुनाना, क्योंकि मैं बुद्धि के दोष से भूल गया हूँ। तब श्री कृष्ण जी ने कहा कि हे अर्जुन तू निश्चय ही बड़ा श्रद्धाहीन है। तेरी बुद्धि अच्छी नहीं है। ऐसे पवित्र ज्ञान को तूं क्यों भूल गया ? फिर स्वयं कहा कि अब उस पूरे गीता ज्ञान को मैं नहीं कह सकता अर्थात् मुझे ज्ञान नहीं। कहा कि उस समय तो मैंने योग युक्त होकर बोला था। विचारणीय विषय है कि यदि भगवान श्री कृष्ण जी युद्ध के समय योग युक्त हुए होते तो शान्ति समय में योग युक्त होना कठिन नहीं था। जबकि श्री व्यास जी ने वही पवित्र गीता जी का ज्ञान वर्षों उपरान्त ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर दिया। उस समय काल ब्रह्म(ज्योति निरंजन) ने श्री व्यास जी के शरीर में प्रवेश कर के पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी को लिपिबद्ध कराया, जो वर्तमान में आप के कर कमलों में है।

प्रमाण के लिए संक्षिप्त महाभारत पृष्ठ नं. 667 तथा पुराने के पृष्ठ नं. 1531 पर:-
न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः।।परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया।(महाभारत, आश्रवः 1612.13)

भगवान बोले – ‘वह सब-का-सब उसी रूपमें फिर दुहरा देना अब मेरे वशकी बात नहीं है। उस समय मैंने योगयुक्त होकर परमात्मतत्वका वर्णन किया था।‘

संक्षिप्त महाभारत द्वितीय भाग के पृष्ठ नं. 1531 से साभार:
(‘श्रीकृष्णका अर्जुनसे गीता का विषय पूछना सिद्ध महर्षि वैशम्पायन और काश्यपका संवाद‘) – पाण्डुनन्दन अर्जुन श्रीकृष्णके साथ रहकर बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने एक बार उस रमणीय सभाकी ओर दृष्टि डालकर भगवान से यह वचन कहा– ‘देवकीनन्दन ! जब युद्धका अवसर उपस्थित था, उस समय मुझे आपके माहात्म्यका ज्ञान और ईश्वरीय स्वरूपका दर्शन हुआ था, किंतु केशव ! आपने स्नेहवश पहले मुझे जो ज्ञानका उपदेश किया था, वह सब इस समय बुद्धिके दोषसे भूल गया हूँ। उन विषयोंको सुननेके लिये बारंबार मेरे मनमें उत्कण्ठा होती है, इधर, आप जल्दी ही द्वारका जानेवाले हैं। अतः पुनः वह सब विषय मुझे सुना दीजिये। वैशम्पायनजी कहते हैं –अर्जुनके ऐसा कहनेपर वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें गलेसे लगाकर इस प्रकार उत्तर दिया। श्रीकृष्ण बोले –अर्जुन ! उस समय मैंने तुम्हें अत्यन्त गोपनीय विषयका श्रवण कराया था, अपने स्वरूपभूत धर्म सनातन पुरुषोत्तमतत्त्वका परिचय दिया था और (शुक्ल-कृष्ण गतिका निरूपण करते हुए) नित्य लोकोंका भी वर्णन किया था। किंतु तुमने जो अपनी नासमझीके कारण उस उपदेशको याद नहीं रक्खा यह जानकर मुझे बड़ा खेद हुआ है। उन बातोंका अब पूरा-पूरा स्मरण होना सम्भव नहीं जान पड़ता। पाण्डुनन्दन ! निश्चय ही तुम बड़े श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि अच्छी नहीं जान पड़ती। अब मेरे लिये उस उपदेशको ज्यों-का-त्यों दुहरा देना कठिन है, क्योंकि उस समय योगयुक्त होकर मैंने परमात्मतत्त्वका वर्णन किया था। (अधिक जानकारी के लिए पढ़ें – ‘संक्षिप्त महाभारत द्वितीय भाग‘)

विचार करें:- उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि श्री कृष्ण जी ने श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान नहीं बोला, यह तो काल (ज्योति निरंजन अर्थात् ब्रह्म) ने बोला था।

अन्य प्रमाण:- (1) कुछ समय उपरान्त श्री युधिष्ठिर जी को भयंकर स्वपन आने लगे। श्री कृष्ण जी से कारण तथा समाधान पूछा तो बताया कि तुमने युद्ध में जो पाप किए हैं वह नर संहार का दोष तुम्हें दुःख दाई हो रहा है। इसके लिए एक यज्ञ करो। श्री कृष्ण जी के मुख कमल से यह वचन सुन कर श्री अर्जुन को बहुत दुःख हुआ तथा मन ही मन विचार करने लगाकि भगवान श्री कृष्ण जी पवित्र गीता बोलते समय तो कह रहे थे कि अर्जुन तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा, तू युद्ध कर ले(पवित्र गीता अध्याय 2 श्लोक 37-38)। यदि युद्ध में मारा भी गया तो स्वर्ग का सुख भोगेगा, अन्यथा युद्ध में जीत कर पृथ्वी के राज्य का आनन्द लेगा, तुम्हारे दोनों हाथों में लड्डू हैं। अर्जुन ने विचार किया कि जो समाधान दुःख निवारण का श्री कृष्ण जी ने बताया है इसमें करोड़ों रूपया व्यय होना है। जिससे बड़े भाई युधिष्ठिर का कष्ट निवारण होगा। यदि मैं श्री कृष्ण जी से वाद-विवाद करूंगा कि आप पवित्रा गीता जी का ज्ञान देते समय तो कह रहे थे कि तुम्हें पाप नहीं लगेगा। अब उसके विपरित कह रहे हो। इससे मेरा बड़ा भाई यह न सोच बैठे कि करोड़ों रूपये के खर्च को देख कर अर्जुन बौखला गया है तथा मेरे कष्ट निवारण से प्रसन्न नहीं है, इसलिए मौन रहना उचित जान कर सहर्ष स्वीकृति दे दी तथा कहा कि हे भगवन् जैसा आप कहोगे वैसा ही होगा। श्री कृष्ण जी ने उस यज्ञ की तिथि निर्धारित कर दी। वह यज्ञ भी श्री सुदर्शन स्वपच के भोजन खाने से सफल हुई।

कुछ समय उपरान्त ऋषि दुर्वासा जी के शापवश सर्व यादव कुल का विनाश हो गया, श्री कृष्ण भगवान के पैर के तलुवे में एक शिकारी (जो त्रोतायुग में सुग्रीव के भाई बाली की ही आत्मा थी) ने विषाक्त तीर मार दिया। तब पाँचों पाण्डवों के घटना स्थल पर पहुँच जाने के उपरान्त श्री कृष्ण जी ने कहा कि आप मेरे शिष्य हो मैं आप का धार्मिक गुरु भी हूँ। इसलिए मेरी अन्तिम आज्ञा सुनो। एक तो यह है कि अर्जुन, द्वारिका की सर्व स्त्रियों को इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) ले जाना, क्योंकि यहाँ कोई नर नहीं बचा है तथा दूसरे आप सर्व पाण्डव राज्य त्याग कर हिमालय में साधना करके शरीर को गला देना। क्योंकि तुमने महाभारत के युद्ध के दौरान जो हत्याऐं की थी, तुम्हारे शीश पर वह पाप बहुत भयंकर है। उस समय अर्जुन अपने आप को नहीं रोक सका तथा कहा प्रभु वैसे तो आप ऐसी स्थिति में हैं कि मुझे ऐसी बातें नहीं करनी चाहिऐं, परन्तु प्रभु यदि आज मेरी शंका का समाधान नहीं हुआ तो मैं चैन से मर भी नहीं पाऊँगा। पूरा जीवन रोता रहूँगा। श्री कृष्ण जी ने कहा अर्जुन पूछ ले जो कुछ पूछना है, मेरा अन्तिम समय है। श्री अर्जुन ने आँखों में आंसू भर कर कहा कि प्रभु बुरा न मानना। जब आपने पवित्र गीता जी का ज्ञान कहा था उस समय मैं युद्ध करने से मना कर रहा था। आपने कहा था कि अर्जुन तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं। यदि युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त होगा और यदि विजयी हुआ तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा तथा तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। हमने आप ही की देख-रेख व आज्ञानुसार युद्ध किया(प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 2 श्लोक 37-38)। हे भगवन् ! हमारे तो एक हाथ में भी लड्डू नहीं रहा। न तो युद्ध में मर कर स्वर्ग प्राप्ति हुई तथा अब राज्य त्यागने का आदेश आप दे रहे हैं, न ही पृथ्वी के राज्य का आनन्द ही भोग पाए। ऐसा छल युक्त व्यवहार करने में आपका क्या हित था? अर्जुन के मुख से यह वचन सुन कर युधिष्ठिर जी ने कहा कि अर्जुन ऐसी स्थिति में जब कि भगवान अन्तिम स्वांस गिन रहे हैं आपका शिष्टाचार रहित व्यवहार शोभा नहीं देता। श्री कृष्ण जी ने कहा अर्जुन आज मैं अन्तिम स्थिति में हूँ, तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो, आज वास्तविकता बताता हूँ कि कोई खलनायक जैसी और शक्ति है जो अपने को यन्त्र की तरह नचाती रही, मुझे कुछ मालूम नहीं मैंने गीता में क्या बोला था। परन्तु अब मैं जो कह रहा हूँ वह तुम्हारे हित में है। श्री कृष्ण जी यह वचन अश्रुयुक्त नेत्रों से कह कर प्राण त्याग गए। उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि पवित्र गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने नहीं कहा। यह तो काल ब्रह्म(ज्योति निरंजन) ने बोला था, जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का स्वामी है। काल ब्रह्म कौन है? यह जानने के लिए कृप्या सृष्टि रचना पढ़े http://www.jagatgururampalji.org/agg.pdf इस पुस्तक के पृष्ठ नं. 84 से 159 पर। श्री कृष्ण सहित सर्व यादवों का अन्तिम संस्कार कर अर्जुन को छोड़ कर चारों भाई इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) चले गए। पीछे से अर्जुन द्वारिका की स्त्रियों को लिए आ रहा था। रास्ते में जंगली लोगों ने सर्व गोपियों को लूटा तथा कुछेक को भगा ले गए तथा अर्जुन को पकड़ कर पीटा। अर्जुन के हाथ में वही गांडीव धनुष था जिससे महाभारत के युद्ध में अनगिन हत्याऐं कर डाली थी, वह भी नहीं चला। तब अर्जुन ने कहा कि यह श्री कृष्ण वास्तव में झूठा तथा कपटी था। जब युद्ध में पाप करवाना था तब तो मुझे शक्ति प्रदान कर दी, एक तीर से सैकड़ों योद्धाओं को मार गिराता था और आज वह शक्ति छीन ली, खड़ा-खड़ा पिट रहा हूँ। इसी विषय में पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब (कविर्देव) जी का कहना है कि श्री कृष्ण जी कपटी व झूठे नहीं थे। यह सर्व छल काल ब्रह्म(ज्योति निरंजन) कर रहा है। जब तक यह आत्मा कबीर परमेश्वर(सतपुरुष) की शरण में पूरे सन्त(तत्वदर्शी) के माध्यम से नहीं आ जाएगी, तब तक काल इसी तरह कष्ट पर कष्ट देता रहेगा। पूर्ण जानकारी तत्वज्ञान से होती है।

अन्य प्रमाण:-(2) गीता अध्याय 10 श्लोक 9 से 11 में गीता ज्ञान दाता काल प्रभु कह रहा है कि जो श्रद्धालु मुझ ब्रह्म का ही निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं उनके अज्ञान को नष्ट करने के लिए मैं ही उनके अन्दर(आत्मभावस्थः) जीवात्मा की तरह बैठकर शास्त्रों का ज्ञान देता हूँ।

(3) श्री विष्णु पुराण(गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के चतुर्थ अंश अध्याय 2 श्लोक 21 से 26 में पृष्ठ 233 पर लिखा है कि देवताओं और राक्षसों के युद्ध में देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने कहा है कि मैं राजर्षि शशाद के शरीर में कुछ समय प्रवेश करके असुरों का नाश करूंगा। (यहाँ पर विष्णु रूप में काल ब्रह्म बोल रहा है)

(4) श्री विष्णु पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के चतुर्थ अंश अध्याय 3 श्लोक 4 से 6 में पृष्ठ 242 पर लिखा है कि ‘‘नागेश्वरों की प्रार्थना स्वीकार करके श्री विष्णु जी ने कहा कि मैं मानधाता के पुत्रा पुरूकुत्स के शरीर में प्रवेश करके गन्धर्वों का नाश करूंगा। {यहाँ पर विष्णु रूप में काल ब्रह्म बोल रहा है}

विशेष विचार:- उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं बोला, यह तो श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश होकर काल ब्रह्म(ज्योति निरंजन) ने बोला था क्योंकि वह उपरोक्त नियम से किसी भी योग्य व्यक्ति में प्रेतवत् प्रवेश करके अपना कार्य सिद्ध करता है, पश्चात् निकल जाता है जैसे अर्जुन में प्रवेश करके विरोधी सेना मार डाली पश्चात् निकल गया। फिर अर्जुन को जंगली व्यक्तियों ने मारा-पीटा। अर्जुन में पूर्व वाली शक्ति नहीं रही।

“काल की परिभाषा”

पवित्र विष्णु पुराण में वर्णन है कि भगवान विष्णु (महाविष्णु रूप में काल) का प्रथम रूप तो पुरुष (प्रभु जैसा) है परन्तु उसका परम रूप ‘काल‘ है। जब भगवान विष्णु (काल जो महाविष्णु रूप में ब्रह्मलोक में रहता है तथा प्रकृति अर्थात् दुर्गा को अपनी पत्नी महालक्ष्मी रूप में रखता है) अपनी प्रकृति (दुर्गा) से अलग हो जाता है तो काल रूप में प्रकट हो जाता है। (विष्णु पुराण अध्याय 2 श्लोक 14 व 27 पृष्ठ 4-5 गीता प्रैस गोरख पुर से प्रकाशित, अनुवादक हैं श्री मुनिलाल गुप्त)विशेष:- उपरोक्त विवरण का भावार्थ है कि यह महाविष्णु अर्थात् काल पुरुष पहले तो लगता है कि यह दयावान भगवान है। जैसे खाने के लिए अन्न, मेवा व फल आदि कितने स्वादिष्ट प्रदान किए हैं तथा पीने के लिए दूध, जल कितने स्वादिष्ट तथा प्राण दायक प्रदान किए हैं। कितनी अच्छी वायु जीने के लिए चला रखी है, कितनी विस्तृत पृथ्वी रहने तथा घूमने के लिए प्रदान की है, फिर पति-पत्नी का योग, पुत्रांे व पुत्रियों की प्राप्ति से लगता है कि यह तो बड़ा दयावान प्रभु है। जिसके लोक में हम रह रहे हैं। महाविष्णु का वास्तविक रूप काल कैसे है:- किसी के पुत्र की मृत्यु, किसी की पुत्री की मृत्यु, किसी के दोनों पुत्रों की मृत्यु, किसी का पूरा परिवार दुर्घटना में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। किसी क्षेत्र में बाढ़ आकर हजारों व्यक्तियों की परिवार सहित मृत्यु, किसी क्षेत्रा में भूकंप से लाखों व्यक्ति सपरिवार मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार इस विष्णु (महाविष्णु रूप में ज्योति निरंजन) का वास्तविक रूप काल है। क्योंकि ज्योति निरंजन (काल) शाप वश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का आहार करता है। इसलिए अपने तीनों पुत्रों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी) से उत्पत्ति, स्थिति व संहार करवाता है।

उदाहरण:- पूर्ण ब्रह्म कविर्देव ने अपने प्रिय सेवक श्री धर्मदास जी द्वारा काल की स्थिति पूछने पर बताया कि जैसे कसाई बकरे पालता है। उन प्राणियों के चारे की व्यवस्था करता है, पानी का प्रबन्ध करता है, गर्मी व सर्दी से बचने के लिए कुछ मकान आदि का भी प्रबन्ध करता है, जिससे वे अबोध बकरे समझते हैं कि हमारा स्वामी बहुत दयालु है। हमारा कितना ध्यान रखता है। जब कसाई उनके पास आता है तो वे नर व मादा बकरे उसे अपना सुखदाई मालिक जान कर उसको प्यार जताने के लिए आगे वाले पैर उठाकर कसाई के शरीर को स्पर्श करते हैं, कुछ उसके हाथों व पैरों को चाटते हैं। कसाई उन बकरों को छूकर कमर पर हाथ लगा कर दबा-दबा कर देखता है तो वे बकरे समझते हैं कि हमें प्यार दे रहा है। परन्तु कसाई देख रहा होता है कि इस बकरे में कितने किलोग्राम मास हो चुका है। जब मांस लेने के लिए ग्राहक आता है तो उस समय कसाई नहीं देखता कि किसका बाप मर रहा है, किसकी बेटी या पुत्र या सर्व परिवार मर रहा है। उनको सुविधा देने का उसका यही उद्देश्य था। ठीक इसी प्रकारसर्व प्राणी काल ब्रह्म की साधना करके काल आहार ही बने हैं। इससे छूटने की विधि आपको http://www.jagatgururampalji.org/ पर मिलेगी।

एक बहन ने मुझ दास (संत रामपाल जी) का सतसंग सुना तथा बाद में अपनी दुःख भरी कथा सुनाई जो निम्न है:– उस बहन ने कहा महाराज जी मैं विधवा हूँ। एक पुत्र की प्राप्ति होते ही मेरे पति की मृत्यु हो गई। मैंने अपने पुत्र की परवरिश बहुत ही चाव तथा प्यार के साथ इस दृष्टि कोण से की कि कहीं पुत्र को पिता का अभाव महसूस न हो जाए। उसने जो सम्भव वस्तु की प्रार्थना की मैंने दुःखी सुखी होकर उपलब्ध करवाई। जब वह ग्यारहवीं कक्षा में कालेज में जाने लगा तो मोटर साईकिल की जिद कर ली। दुर्घटना के भय से मैंने बहुत मना किया, परन्तु पुत्र ने खाना नहीं खाया। तब मैंने उसके प्यारवश होकर मोटर साईकिल जैसे-तैसे करके मोल लेकर दे दी। मैंने दूसरी शादी भी इसी उद्देश्य से नहीं करवाई की कि कहीं मेरे पुत्र को कष्ट न हो जाए। मैंने अपने पुत्र को गर्म-गर्म खाना खिलाया। वह प्रतिदिन की तरह अपने एक दोस्त को उसके घर से मोटर साईकिल पर बैठाकर कालेज जाने के लिए चला गया। मैंने शेष भोजन बनाया तथा स्वयं खाने के लिए भोजन डाल कर प्रथम ग्रास ही तोड़ा था इतने में मेरे पुत्र का दोस्त दौड़ता हुआ आया, उसको कुछ चोट लगी हुई थी। उसने कहा कि चाची भईया को दुर्घटना में बहुत ज्यादा चोट आई है। इतना सुनते ही हाथ का ग्रास थाली में गिर गया। नंगे पैरों उस बच्चे के साथ पागलों की तरह रोती हुई दौड़ कर उस स्थान पर गई जहाँ मेरे पुत्र की दुर्घटना हुई थी। वहाँ पर केवल क्षति ग्रस्त मोटर साईकिल पड़ी थी। उपस्थित व्यक्तियों ने बताया कि आपके पुत्र को अस्पताल लेकर गये हैं। मैं अस्पताल पहुँची तो डाक्टरों ने मृत घोषित कर दिया। मैंने अस्पताल की दीवार को टक्कर मारी, मेरा सिर फट गया, सात टांके लगे, बेहोश हो गई, लगभग दो घंटे में होश आया। उस दिन के बाद सर्व भगवानों के चित्र घर से बाहर फैंक दिए तथा स्वपन में भी किसी भगवान को याद नहीं करती। क्योंकि मैंने अपने पुत्र की कुशलता के लिए लोकवेद अनुसार सर्व साधनाऐं की, परन्तु कुछ भी काम नहीं आई। आज आप का सतसंग जो सृष्टि रचना का प्रकरण आपने सुनाया तथा पवित्र गीता जी से भी बताया कि यह सर्व काल का जाल है, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कसाई की तरह सर्व प्राणियों को विवश किए हुए है। मेरी तो आज आंखें खुल गई। अब मन करता है कि आपका उपदेश लेकर काल जाल से निकल जाऊं। उस बहन ने उपदेश लिया तथा अपना कल्याण करवाया।मैंने उस बहन से पूछा आप क्या साधना करते थे? उस बहन ने उत्तर दिया:- एक सुप्रसिद्ध संत का नाम लेकर कहा कि उस मूर्ख से दस वर्ष से उपदेश भी ले रखा था। उसके बताए अनुसार नाम जाप घण्टों किया करती थी। श्री विष्णु जी का सहस्त्र्नाम का जाप भी करती थी। गीता जी का नित्य पाठ, पितर पूजा (श्राद्ध निकालना) करती थी। गांव में परम्परागत बाबा श्याम जी की पूजा भी करती थी। अष्टमी तथा सोमवार का व्रत भी करती थी। निकटतम मन्दिर में प्रतिदिन जाती थी। वर्ष में दो बार वैष्णों देवी के दर्शन करने जाती थी। गुड़गांव वाली माता की पूजा भी करती थी। नवरात्रों का व्रत भी किया करती थी। एक बहन ने कहा बाबा गरीबदास जी की पूजा करने तथा वहाँ छुड़ानी धाम(जिला झज्जर) पर जाने से कोई आपत्ति नहीं आ सकती। वहाँ भी छठे महीने मेला भरता है जाया करती थी तथा पाठ भी करवाती थी। और क्या बताऊँ? बाबा हरिदास जी झाड़ौदा वाले की भी पूजा करती थी। मुझे कोई लाभ नहीं हुआ। पहले तो लगता था कि मेरा परिवार सुखी है। जो उपरोक्त साधना का ही परिणाम है, परन्तु अब आप के सतसंग से ज्ञान हुआ कि यह तो मेरा प्रारब्ध ही मिल रहा था। ये पूजाऐं पवित्र गीता जी में तथा पवित्रा अमृत वाणी परमेश्वर कबीर जी तथा गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ में वर्णित न होने से शास्त्र विरुद्ध थी। जिस कारण से कोई लाभ होना ही नहीं था। हमारा क्या दोष है? जो गुरु जी ने साधना बताई मैं तो तन-मन-धन से कर रही थी। अब पता चला कि वे गुरु नहीं है, वे तो नीम हकीम हैं। मानव जीवन के सब से बड़े शत्रु हैं। यदि मुझे यह सत्य साधना मिल जाती तो मेरा पुत्र नहीं मरता क्योंकि मैंने आपके सेवकों के सुखों को देखा है तथा उन पर आने वाली भयंकर आपतियों को टलते देखा है। तब मैं आपका सतसंग सुनने आई हूं तथा आप का लगातार चार दिन तक सतसंग सुनकर आज उपदेश लेने की इच्छा हुई है। मैंने उस बहन से कहा कि जिन साधनाओं को आप कर रही थी वे सर्व शास्त्र विधि अनुसार नहीं थी, जिस कारण आपको परमेश्वर का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। यह तो आप ने स्वयं ही निर्णय लेकर बता दिया। क्योंकि आज तक आपको सत्संग ही प्राप्त नहीं हुआ था। जिसे आप सतसंग जान कर श्रवण करती थी वह सतसंग नहीं लोक वेद (सुना सुनाया शास्त्र विरुद्ध ज्ञान) था। जो आप किसी धाम पर जाती थी तथा पाठ करवाती थी। आदरणीय गरीबदास जी की पूजा करती थी। जब कि आदरणीय गरीबदास जी तो कहते हैं कि:-
सब पदवी के मूल हैं, सकल सिद्ध हैं तीर। दास गरीब सतपुरुष भजो, अविगत कला कबीर।।अलल पंख अनुराग है, सुन्न मण्डल रहे थीर। दास गरीब उधारिया, सतगुरु मिलें कबीर।।पूजें देई धाम को, शीश हलावें जो। गरीबदास साची कहैं, हद काफिर हैं सो।
उपरोक्त अमृतवाणी में प्रमाण है कि आदरणीय गरीबदास साहेब जी कह रहे हैं कि मेरा उद्धार भी परमेश्वर कबीर(कविर्देव) ने किया तथा तुम भी उसी सर्वशक्तिमान कबीर(कविरमितौजा) परमेश्वर की ही भक्ति करो। उसके लिए कहा है कि पूर्ण संत जो कबीर परमेश्वर(कविर्देव) का कृपा पात्रा हो, उससे उपदेश लेकर अपना कल्याण करवाओ। झूठे गुरुओं के आश्रित रहने से जीवन व्यर्थ होता है। उस शास्त्र विरुद्ध साधना बताने वाले नकली गुरु को त्याग देना चाहिये। उसके तो दर्शन भी अशुभ होते हैं। आदरणीय गरीबदास साहेब जी अपनी अमृतवाणी में कहते हैं कि:- झूठे गुरु को लीतर लावैं, उसको निश्चय पीटे। उसके पीटे पाप नहीं है, घर से काढ़ घसीटे।।उपरोक्त अमृतवाणी में आदरणीय गरीबदास साहेब जी शास्त्र विधि रहित साधना बता कर अनमोल मानव जन्म को नष्ट करने वाले नकली (झूठे) मार्ग दर्शकों (गुरुओं) के विषय में कह रहे हैं कि वे आप का जीवन नष्ट करने वाले हैं। उनसे तुरंत छुटकारा लेना चाहिये। घर में घुसने नहीं देना चाहिए। वे तो परमेश्वर कबीर (कविर्देव) के द्रोही हैं तथा काल के भेजे दूत हैं।

"अन् अधिकारी से यज्ञ व पाठ करवाना व्यर्थ है"
जिसको पूर्ण परमात्मा का मार्ग दर्शन करने का अधिकार नहीं है तथा उसके पास सत्य भक्ति तीन मंत्र की नहीं है, वह अन् अधिकारी होता है। पूर्ण संत जो पूर्ण परमेश्वर की वास्तविक साधना बताता है उसे गुरु बना कर उसी के माध्यम से सर्व धार्मिक अनुष्ठान करवाना हितकर है।
कबीर गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन दोनों निष्फल हैं, पूछो वेद पुराण।।
गुरु बिन यज्ञ हवन जो करही, निष्फल जाएं कबहुं नहीं फलहीं।
एक बार राजा परिक्षित को सातवें दिन सर्प ने डसना था। उस समय सर्व ऋषियों ने यह निर्णय लिया कि राजा को सात दिन तक श्रीमद्भागवद सुधासागर का पाठ सुनाया जाये, ताकि राजा का मोह संसार से हट जाए। कौन ऐसा कथा करने वाला ऋषि है जिसके पाठ करने से राजा का कल्याण हो सके ?विचार करें:- सातवें दिन पता लग जाना था कि कथा (पाठ) करने वाला अधिकारी है या नहीं। इसलिए पृथ्वी पर उपस्थित सर्व ऋषियों व महर्षियों ने पाठ (कथा) करने का कार्य स्वीकार नहीं किया। क्योंकि वे महापुरुष प्रभु के संविधान से परिचित थे, इसलिए राजा परिक्षित के जीवन से खिलवाड़ नहीं किया तथा जो ढोंगी थे वे इस डर से सामने नहीं आए कि सातवें दिन पोल खुल जायेगी। उस समय स्वर्ग से महर्षि सुखदेव जी बुलाए गए जो विमान में बैठ कर आए। आते ही श्री सुखदेव जी ने राजा परिक्षित जी से कहा कि राजन आप मेरे से उपदेश प्राप्त करो अर्थात् मुझे गुरु बनाओ तब कथा (पाठ) करने का फल प्राप्त होगा। राजा परिक्षित ने श्री सुखदेव जी को गुरु बनाया तब सात दिन श्री भागवत सुधासागर (श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण जी की लीला) की कथा सुनाई। राजा को सर्प ने डसा। राजा की मृत्यु हो गई। सूक्ष्म शरीर में राजा परिक्षित अपने गुरु श्री सुखदेव जी के साथ विमान में बैठ कर स्वर्ग गए। क्योंकि पहले राजा बहुत धार्मिक होते थे, पुण्य करते रहते थे। राजा परिक्षित ने श्री कृष्ण जी से उपदेश भी प्राप्त था। उन्हीं के मार्ग दर्शन अनुसार बहुत धर्म किया था। परन्तु बाद में कलयुग के प्रभाव से ऋषि भिंडी के गले में सर्प डालने से तथा अन्य मर्यादा हीन कार्य करने से राजा परिक्षित का उपदेश खण्ड हो गया था। उस समय न तो किसी ऋषि जीने राजा को उपदेश दे कर शिष्य बनाने की हिम्मत की, क्योंकि वे गुरु बनने योग्य नहीं थे। उन्हें उपदेश देने का अधिकार नहीं था। केवल श्री कृष्ण जी ही उपदेश देते थे, जो पाण्डवों के भी गुरु जी थे तथा छप्पन (56) करोड़ यादवों के भी गुरु जी थे। राजा परिक्षित के पुण्यों के आधार से श्री सुखदेव जी गुरु बन कर उसको कथा सुनाकर संसार से आस्था हटवा कर केवल स्वर्ग ले गए। इतना लाभ राजा परिक्षित को हुआ। स्वर्ग का समय पूरा होने अर्थात् पुण्य क्षीण होने के उपरान्त राजा परिक्षित तथा सुखदेव जी भी नरक जायेंगे, फिर चैरासी लाख प्राणियों के शरीर में नाना कष्ट उठायेंगे। जन्म-मृत्यु समाप्त नहीं हुआ अर्थात् मुक्त नही हुए। वर्तमान के सन्तों व महन्तों को स्वयं ही ज्ञान नही कि हम जो शास्त्र विरुद्ध साधना कर तथा करवा रहे हैं यह कितनी भयंकर कष्ट दायक दोनों (गुरु जी व शिष्यों) को होगी। इसलिए पुनर् विचार करना चाहिए तथा झूठे गुरुजी को तथा झूठी (शास्त्रा विरुद्ध) पूजाओं को तुरन्त त्याग कर सत्य साधना प्राप्त करके आत्म कल्याण करवाना चाहिए। वह साधना मुझ दास के पास पूर्ण रूपेण उपलब्ध है.
-संत रामपाल जी महाराज

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पवित्र गीता जी से संबंधित वीडियो देखें:
http://www.youtube.com/watch?v=wCd91lgTkBU
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